पिता की मृत्यु के बाद एक पुत्र को क्या क्या करना चाहिए? गरुड पुराण में बताए गए है सारे हिंदू रीति रिवाज!.

जिससे वह आसानी से यमलोक की यात्रा पूरी कर लेता है। हिन्दू धर्म में अधिकत्तर श्राद्ध कर्म पुत्रों द्रारा ही किया जाता है। आज हम आप को इस आर्टिकल में बताएंगे कि पिता की मृत्यु के बाद पुत्र को क्या क्या करना चाहिए। तो आइए इस खबर के बारे में विस्तार से जानते है।

पिता की मृत्यु के बाद पुत्र को क्या क्या करना चाहिए?

गरुड पुराण भगवान विष्णु ने कहा था कि दशगात्रविधि को धारण करने से सत्पुत्र पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है। इस विधान को पूरा करते समय मृतक के पुत्र को अपने पिता के मरने पर शोक का परित्याग करना चाहिए। फिर सात्विक भाव से पिता का पिण्डदान आदि कर्म करना चाहिए।

इस विधान को पूरा करते समय पुत्र को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए की उसकी आँखों से आंसुओं का एक बूँद भी बाहर ना निकले। क्योंकि पुत्र अथवा बान्धवों के द्वारा दशगात्र विधान के दौरान किये गये अश्रुपात को विवश होकर पिता रूपी प्रेत को उसका पान करना पड़ता है।

भगवान विष्णु कहते हैं कि हे पक्षीराज पुत्र को चाहिए कि वह दशगात्र विधि के दौरान निरर्थक शोक कर के रोये नहीं। क्योंकि यदि कोई भी पुत्र हजारों वर्ष रात-दिन शोक करता रहे, तो भी उसके मृतक पिता वापस नहीं आ सकते। हे गरुड़ ये तो तुम भी जानते ही हो कि पृथ्वीलोक पर जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है और जिसकी मृ्त्यु हुई है उसका जन्म भी निश्चित है।

इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को जन्म-मृत्यु के विषय में शोक नहीं करना चाहिए। ऎसा कोई दैवी अथवा मानवीय उपाय नहीं है, जिसके द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ व्यक्ति पुन: लौटकर यहाँ सके।

पिता अथवा अपनों की मृत्यु के पुत्र अथवा मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के साथ हमेशा रहना संभव नहीं है। जब अपने शरीर के साथ भी जीवात्मा का सार्वकालिक संबंध संभव नहीं है तो फिर अन्य परिजनों की तो बात ही क्या? हे गरुड़ जिस प्रकार यात्री यात्रा करते समय छाया का आश्रय लेकर विश्राम करता है।

फिर अपने पथ पर आगे की ओर बढ़ जाता है उसी प्राणी इस संसार में जन्म लेता है और अपने कर्मों को भोगकर निश्चित समय के बाद अपने गन्तव्य को चला जाता है अर्थात मृत्युलोक को त्याग देता है। इसलिए अज्ञान से होने वाले शोक का परित्याग कर पुत्र को अपने पिता की क्रिया करनी चाहिए।जिससे उसके पिता को मोक्ष मिल सके।

गरुड़ जी भगवान विष्णु से पूछते हैं कि हे नारायण आपने जो बताया वह प्राणियों के लिए बड़ा ही कल्याणकारी है परन्तु हे भगवन कृपया कर यह तो बताइये कि अगर किसी मनुष्य को पुत्र नहीं है तो उसके लिए कौन इस विधान पो पूर्ण कर सकता है। तब भगवान विष्णु कहते हैं कि हे गरुड़ यदि किसी मनुष्य को पुत्र नहीं है तो पुत्र के आभाव में पत्नी और पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को तथा सहोदर भाई के अभाव में ब्राह्मण दशगात्र विधान की क्रिया को पूर्ण कर सकता है।

इसके आलावा पुत्रहीन व्यक्ति के मरने पर उसके बड़े अथवा छोटे भाई के पुत्रों या पौत्रों के द्वारा दशगात्र आदि कार्य कर सकता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि एक पिता से उत्पन्न होने वाले भाईयों में यदि एक भी पुत्रवान हो तो उसी पुत्र से सभी भाई पुत्रवान हो जाते हैं।

यदि एक पुरुष की बहुत-सी पत्नियों में कोई एक पुत्रवती हो जाए तो उस एक ही पुत्र से वे सभी पुत्रवती हो जाती हैं। सभी भाई पुत्रहीन हों तो उनका मित्र पिण्डदान करे अथवा सभी के अभाव में पुरोहित को ही क्रिया करनी चाहिए। क्रिया का लोप नहीं करना चाहिए। यदि कोई स्त्री अथवा पुरुष अपने इष्ट-मित्र की और्ध्वदैहिक क्रिया करता है तो अनाथ प्रेत का संस्कार करने से उसे कोटियज्ञ का फल प्राप्त होता है।

इसके बाद भगवान विष्णु पक्षीराज गरुड़ से कहते हैं कि हे गरुड़ पिता का दशगात्रादि कर्म पुत्र को करना चाहिए, किंतु यदि ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु हो जाए तो अति स्नेह होने पर भी पिता उसकी दशगात्रादि क्रिया न करे।

बहुत-से पुत्रों के रहने पर भी दशगात्र, सपिण्डन तथा अन्य षोडश श्राद्ध एक ही पुत्र को करना चाहिए। इतना ही नहीं यदि पुत्रों के बिच पैतृक संपत्ति का बँटवारा भी हो गया हो तो भी दशगात्र, सपिण्डन और षोडश श्राद्ध एक को ही करना चाहिए।

दशगात्र विधि के दौरान ज्येष्ठ पुत्र को चाहिए कि वह एक समय ही भोजन करे, भूमि पर ही सोये तथा ब्रह्मचर्य धारण करके इस विधान को पूर्ण करे। तभी प्रेत रुपी पिता के आत्मा को मुक्ति मिलती है।

हे गरुड़ जो पुत्र अपने पिता के निमित विधिपूर्वक इस विधान को पूर्ण करता है उसे वही फल प्राप्त होता है जो पृथ्वी की सात बार परिक्रमा करने के पश्चात् प्राप्त होता है। दशगात्र से लेकर पिता की वार्षिक श्राद्ध क्रिया करने वाला पुत्र गया श्राद्ध का फल प्राप्त करता है।

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