20 अप्रैल सन 571 ईश्वी… मुल्के अरब का एक शहर मक्का… सुबह करीब 4 बजे के आसपास कबीला-ए-कुरैश के एक घर में एक बच्चे की किलकारी गूंजती है. रात का अंधेरा छटता है सूरज की पहली किरण के साथ घर में खुशियों की दस्तक होती है.
जिस घर में बच्चे ने पहली सांस ली वो घर था हजरते अब्दुल्लाह का. लेकिन, इन लम्हों को देखने के लिए उनकी मौजूदगी घर में नहीं थी, क्योंकि बेटे को देखने से पहले ही वो दुनिया को छोड़ चुके थे. घर में पोते के आने की खबर सुबह-सुबह काबा शरीफ (मुसलमानों का पवित्र स्थान) का तवाफ (चक्कर) करते हुए दादा हजरत अब्दुल मुत्तलिब को होती है.
खुशी से दौड़े-दौड़े दादा हजरत अब्दुल मुत्तलिब घर पहुंचते हैं. नन्हें पोते के माथे को चूमते हैं और उन्हें उठाकर काबा शरीफ के अंदर ले जाते हैं. अल्लाह का शुक्र अदा करने के साथ पोते के लिए दुआ करते हैं और उस नन्हें बेटे का नाम रखते हैं ‘मोहम्मद’, यही आगे चलकर इस्लाम के आखिरी पैगंबर ‘हजरत मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम’ कहलाते हैं. हजरत मोहम्मद साहब की जिस घर में पैदाइश हुई तारीख-ए-इस्लाम में उस जगह को ‘मौलिदुन्नबी’ यानी ‘नबी के पैदाइश की जगह’ कहा गया. एक इस्लामी रिवायत के मुताबिक, हजरत मोहम्मद साहब का जन्म 12 रबीउलअव्वल के दिन हुआ था, इसीलिए इस दिन ‘ईद मीलादुन्नबी’ यानी ‘नबी के पैदाइश के दिन की खुशी’ के रूप में मनाया जाता है.
बचपन में हो गए थे अनाथ
हजरत मोहम्मद साहब के वालिद(पिता) का नाम ‘अब्दुल्लाह’ और मां का नाम ‘आमिना’ था. जब हजरत मोहम्मद अपनी मां के पेट में दो माह के हुए तो पिता का सफर के दौरान एक बीमारी के चलते इंतकाल (निधन) हो गया. 6 साल तक मां का आंचल उनपर बना रहा. इसी उम्र में एक दिन मां आमिना का साया भी हजरत मोहम्मद के सिर से उठ गया. परवरिश की जिम्मेदारी दादा अब्दुल मुत्तलिब पर आई. लेकिन दो साल ही वह इस जिम्मेदारी को निभा सके. हजरत मोहम्मद जब 8 साल के हुए तो दादा का इंतकाल हो गया. तन्हा हो चुके हजरत मोहम्मद की जिम्मेदारी को उनके चाचा अबू तालिब ने संभाला.
पैगंबर बनने से पहले भी हजरत मोहम्मद साहब की मक्का शहर में बड़ी इज्जत थी. लोग उनकी ईमानदारी और उनके उसूलों को लेकर उन्हें ‘अमान’ कहकर बुलाते थे. पैगंबर बनने के बाद हजरत मोहम्मद साहब ने सबसे ज्यादा इज्जत और अधिकार महिलाओं को दिए. इसे जानने से पहले आइए पहले समझते हैं छठवीं शताब्दी में मुल्के अरब के भौगोलिक और सियासी हालातों के बारे में…
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6वीं शताब्दी: अरब की भौगौलिक स्थिति और बुराई
6वीं शताब्दी का दौर… एशिया महाद्वीप के दक्षिणी पश्चिमी में स्थित सूखे पहाड़ों और रेगिस्तान से घिरा मुल्के अरब जो वर्तमान में सऊदी अरब कहलाया. इसे तीन ओर से समुद्र तो एक ओर से फुरात नदी ने घेर रखा है. यहां खेतीबाड़ी के लिए जमीन काफी कम है. यह वो दौर था जब अरब की धरती पर जुल्म, ज्यादती आम थी. शराब पीना, जुआ खेलना, लड़कियों से रेप, चोरी, लूट, हत्या और हर बुरा काम करना कोई जुर्म नहीं था. लेकिन, उस जमाने में बेटी का जन्म लेना एक बड़ा गुनाह जरुर था. जिस घर में बेटी पैदा होती उसे चुपचाप गुमनामी हालात में जिंदा दफन कर दिया जाता था.
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दो पहाड़ों के बीच बसा शहर मक्का
अरब के लोगों का कोई खुदा नहीं था. वो जिस मूर्ति को तैयार कर लेते उसे ही खुदा समझ पूजने लगते थे. जितने कबीले या यूं कहिए जितने खानदान उतने खुदा होते थे. इसी मुल्क में शहर मक्का, जो दो बड़े-बड़े पहाड़ों के बीच बसा हुआ था. यहां मौजूद इस्लाम का सबसे पवित्र धर्म स्थल काबा शरीफ के हज के लिए अलग-अलग मुल्कों से लोग आते थे. यहीं एक बहुत बड़ा बाजार भी लगा करता था और मक्का वालों के लिए सबसे बड़ा आमदनी का जरिया था. पैगंबर मोहम्मद साहब की पैदाइश से पहले मक्का के हालत बहुत ही ज्यादा बुरे थे.
मां के पैरों तले जन्नत, बेटी ‘जन्नत’ जाने का जरिया
बचपन से ही हजरत मोहम्मद साहब इन सब बुराइयों से दूर रहे, जो अरब के लोगों में आम हो चुकी थीं. यहां तक कि उन्होंने ऐसे किसी भी शख्स से कोई मतलब नहीं रखा जिसमें बुराई रही. वह औरतों की बड़ी इज्जत किया करते थे. उन्हें अपनी मां से इतनी मुहब्बत रही कि उन्होंने दुनिया की हर मां के पैरों के नीचे जन्नत का दर्जा और बेटी को जन्नत जाने का जरिया बताया. हजरत मोहम्मद औरतों और लड़कियों पर बुरी नजर रखने वालों से नफरत करते थे.
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महिलाओं को दिए पूरे हक
पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने इस्लाम में औरतों को उनके हक दिए. निकाह के वक्त पहला कुबूल (स्वीकार) कहने का हक औरतों को दिया. निकाह के वक्त मर्दों को औरतों के लिए मेहर(धनराशि या कोई नगदी माल) देने का प्रावधान रखा. मर्दों को जहां तलाक का हक दिया तो औरतों को खुला का हक भी दिया. यहां तक कि खुला लेने के बाद, पत्नी को पति द्वारा मेहर या अपनी जायदाद का कुछ हिस्सा वापस करने के नियम बनाए गए. महिलाओं, लड़कियों से रेप या छेड़खानी की घटना पर इस्लामी शरिया कानून में मौत की सजा रखी गई. पिता की जायदात में बेटियों को हिस्सा देने को कहा गया.
विधवा औरतों से निकाह कर उन्हें दिया सम्मान
हजरत मोहम्मद साहब ने विधवा औरतों को सम्मान दिया. यहां तक कि हजरत मोहम्मद साहब ने पहला निकाह अपने से उम्र में 15 साल बड़ी हजरते खदीजा से किया, जो विधवा थीं. निकाह के वक्त हजरत मोहम्मद की उम्र 25 और हजरते खदीजा 40 साल की थीं. यह इस्लाम कुबूल करने वाली पहली महिला भी हैं. जब तक हजरते खदीजा जिंदा रहीं हजरत मोहम्मद साहब ने किसी दूसरी औरत से निकाह नहीं किया. उस दौर में विधवा औरत को बुरी नजर से देखा जाता था और उसे समाज से काट दिया जाता था. इस्लामी इतिहास के मुताबिक, हजरते खदीजा के इंतकाल के बाद हजरत मोहम्मद ने 10 औरतों से निकाह किए, इनमें सिर्फ हजरते आयशा ही कुंवारी थीं बाकी सभी विधवा थीं, जिनसे निकाह कर पूरे अरब और इस्लामी दुनिया में विधवा औरतों को पूरा सम्मान देने का मैसेज दिया.
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40 साल की उम्र में बने ‘पैगंबर’
हजरत मोहम्मद साहब 40 साल की उम्र में पैगंबर बने. इससे पहले वह मक्का शहर से करीब तीन मील की दूरी पर जबले हिरा नाम की पहाड़ी पर गार में जाकर खुदा की इबादत किया करते थे. इसे गारे हिरा कहा जाता है. अब्दुल मुस्तफा आजमी अपनी किताब ‘सीरते मुस्तफा’ में लिखतें है कि एक दिन गार में इबादत करते हुए एक फरिश्ता (जिब्राइल अलैहिस्सालम) आकर उन्हें अल्लाह का पैगाम सुनाता है. ये सिलसिला चलता रहता है और हजरत मोहम्मद साहब को नबूवत हासिल हो जाती है. वह पैगंबर (खुदा का मैसेंजर) कहलाए जाते हैं. पैगंबर हजरत मोहम्मद मक्का के लोगों को इस्लाम की बातें बताने लगे. उनसे बुराइयों से दूर रहने को कहा. बुतों की इबादत से मना फरमाया और बताया ‘खुदा एक है’. इस पर मक्का के लोग भड़क गए. हजरत मोहम्मद और उनके साथियों के साथ जुल्म करने लगे, उन्हें शहर से निकाल दिया.
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मदीना के लिए की ‘हिजरत’ शुरू हुई ‘हिजरी’
हजरत मोहम्मद साहब ने मक्का शहर से हिजरत कर दी और तकरीबन 320 किलोमीटर दूर मदीना शहर चले गए. इसी हिजरत से इस्लामी कैलेंडर ‘हिजरी’ की शुरुआत हुई. यहां से उन्होंने अल्लाह के भेजे पैगाम को लोगों तक पहुंचाया. लोग हजरत मोहम्मद साहब की बातों से प्रभावित होकर इस्लाम में शामिल होने लगे. मक्का के सियासी लोग उनकी जान के दुश्मन बन गए. उन्होंने हजरत मोहम्मद साहब के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया.
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इस्लाम की पहली जंग
इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक, 2 हिजरी सातवां महीना रमजान की 17 तारीख को मदीना शहर से तकरीबन 80 मील की दूरी पर स्थित बद्र गांव के मैदान पर मक्का के कुरैश कबीले के लोगों से हजरत मोहम्मद साहब से जंग हुई. एक तरफ हजरत मोहम्मद साहब के साथ 313 मुसलमान थे तो दूसरी ओर तलवारों और हथियारों से लैस 1 हजार से ज्यादा दुश्मनों की फौज. इस जंग को हजरत मोहम्मद साहब ने फतेह किया और पैगाम दिया कि जंग के दौरान, पेड़-पौधों, बुजुर्गों-बच्चों, बीमार और महिलाओं का खास ध्यान रखा जाए. जंग के बाद जो लोग पकड़े गए उनके साथ अच्छा सुलूक किया गया. हजरत मोहम्मद साहब की जिंदगी में इस्लाम की जितनी भी जंगे हुईं उसमें इंसानियत का पैगाम दिया गया, इसलिए मोहम्मद साहब को ‘रहमतुल-लिल-आलमीन’ यानी ‘पूरी दुनिया के दयालु’ कहा गया.
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62 साल की उम्र में दुनिया से हुए रुखसत
रमजान के महीना 8 हिजरी यानी जनवरी माह 630 ईश्वी को पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने अपने साथियों के साथ मिलकर मक्का शहर को फतह किया और यहां से इस्लाम के सुनहरे दौर की शुरुआत हुई. यहां हज करने के बाद हजरत मोहम्मद साहब वापस मदीना शरीफ चले गए. यहां 11 हिजरी रबीउलअव्वल की 12 तारीख को शाम के वक्त 62 साल की उम्र में बीमारी के कारण दुनिया से रुखसत हो गए. मदीना शरीफ स्थित मस्जिदे नबवी में उनकी बेगम हजरते आयशा के कमरे में उनके जिस्म को सुपर्दे खाक किया गया, जिसे गुंबदे खिजरा कहा जाता है.