‘मैं शैतान और गहरे समुद्र के बीच में था’… कुंभ में क्यों भड़के थे महात्मा गांधी?

'मैं शैतान और गहरे समुद्र के बीच में था'... कुंभ में क्यों भड़के थे महात्मा गांधी?

1915 के हरिद्वार कुंभ में पहुंचे महात्‍मा गांधी ने अपनी आत्‍मकथा में अनुभवों को साझा किया था.

महात्मा गांधी 1915 में हरिद्वार कुंभ में शामिल हुए थे. हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया था कि धर्म की खोज के लिए उनकी यह यात्रा नहीं थी. कुंभ में दर्शन और उनसे भेंट के लिए उमड़ती भीड़ ने उन्हें अहसास कराया कि दक्षिण अफ्रीका में किए उनके संघर्ष का भारत में कितना असर है. इसी कुंभ में उन्होंने अपने मेजबानों को होने वाली कठिनाइयों के मद्देनजर यह संकल्प किया कि आहार में एक दिन में वे पांच प्रकार से अधिक वस्तुओं का सेवन नहीं करेंगे. लेकिन हरिद्वार पहुंचने के लिए कलकत्ते से सहारनपुर की रेल यात्रा की परेशानियों में उन्हें त्रस्त कर दिया था. उन्हें इस बात की बहुत पीड़ा थी कि रास्ते में प्यास से बेहाल हिंदू यात्री ,जानकारी मिलने पर कि पानी देने वाले हाथ मुसलमान के हैं , फिर उस पानी को पीने को तैयार नहीं थे.

उन्हें कुंभ में अनेक साधु सुख-सुविधाएं खोजते दिखे. तीर्थयात्रियों में भी दिखावा-पाखंड अधिक पाया. लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि यहां आए सत्रह लाख लोगों में असंख्य पुण्यात्माएं होंगी. प्रयागराज के महाकुंभ के अवसर पर पढ़िए 110 वर्ष पूर्व के हरिद्वार कुंभ से जुड़े महात्मा गांधी के अनुभवों के कुछ प्रसंग ,

रेल डिब्बे में ऊपर खुला आकाश, नीचे लोहे का तपता फर्श

यह 1915 का साल था. कुंभ उस साल हरिद्वार में आयोजित था. महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि वे कुंभ में सम्मिलित होने के इच्छुक नहीं थे, लेकिन गुरुकुल में मौजूद महात्मा मुंशी राम से भेंट के लिए उत्सुक थे. पंडित हृदय नाथ कुंजरू के नेतृत्व में गोखले सोसायटी के स्वयंसेवकों का एक बड़ा दल कुंभ में सेवा के लिए हरिद्वार के लिए जा रहा था. महात्मा गांधी से भी जुड़ने का आग्रह किया गया. रंगून से वापसी में महात्मा गांधी भी इसमें शामिल हो गए. पंडित हृदयनाथ कुंजरू इसके प्रमुख थे और डॉ. देव चिकित्सा अधिकारी थे. लेकिन कलकत्ता से हरिद्वार की रेल यात्रा के अनुभव महात्मा गांधी के लिए कष्टप्रद रहे.

उन्होंने लिखा, “कभी-कभी डिब्बों में लाइट नहीं होती थी. हमें माल या मवेशियों के लिए बने डिब्बों में ठूंस दिया जाता था. इन डिब्बों में छत नहीं थी. ऊपर दोपहर की चिलचिलाती धूप और नीचे लोहे की तपती हुई फर्श की वजह से हम लगभग पूरी तरह से जल चुके थे.

इस तरह की यात्रा में होने वाली प्यास की पीड़ा भी रूढ़िवादी हिंदुओं को पानी पीने के लिए राजी नहीं कर सकी, अगर वह ‘मुसलमान’ हो. वे तब तक इंतज़ार करते थे जब तक उन्हें ‘हिंदू’ पानी न मिल जाए.” गांधी को इस बात का क्षोभ था कि बीमारी के दौरान इन्हीं हिंदुओं को डॉक्टर शराब पिलाते हैं. गोमांस की चाय लिखते हैं या मुसलमान, ईसाई कंपाउंडर उन्हें पानी देते हैं, तो वे बिना हिचक उसे ले लेते हैं.

मल-मूत्र सफाई की जिम्मेदारी

हरिद्वार पहुंचे गांधी को शांतिनिकेतन के प्रवास की सीख याद थी कि सफाई व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान देना होगा. हरिद्वार में स्वयंसेवकों के लिए ठहरने के लिए टेंट लगाए गए थे. शौचालय के लिए डॉक्टर देव ने गड्ढे खुदवाए थे. गांधी और उनके सहयोगियों ने मलमूत्र को मिट्टी से ढंकने और अन्य सफाई व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने की पेशकश की. डॉक्टर देव राजी हो गए.

गांधी के अनुसार, पेशकश उनकी थी लेकिन इसे मगनलाल गांधी को पूरा करना था. उन्होंने आगे लिखा, “मेरा काम ज्यादातर तंबू में बैठकर दर्शन देना और मेरे पास आने वाले असंख्य तीर्थयात्रियों के साथ धार्मिक और अन्य चर्चाएं करना था. इससे मेरे पास एक मिनट भी नहीं बचता था जिसे मैं अपना कह सकूं. ये दर्शन चाहने वाले लोग स्नान घाट तक भी मेरे पीछे-पीछे आते थे, और न ही वे मुझे भोजन करते समय अकेला छोड़ते थे. इस प्रकार यह हरिद्वार में ही था कि मुझे अहसास हुआ कि दक्षिण अफ्रीका में मेरी विनम्र सेवाओं ने पूरे भारत में कितनी गहरी छाप छोड़ी है.”

दर्शनार्थियों के तांते ने किया त्रस्त

पर उनसे मिलने-देखने-सुनने वाली यह भीड़ गांधी को खुश नहीं परेशान कर रही थी. वे इससे खिन्न थे. इसे वे उचित नहीं मानते थे. उन्होंने लिखा, “मुझे ऐसा लगता जैसे मैं शैतान और गहरे समुद्र के बीच में था. जहां कोई मुझे पहचानता नहीं था. मैं उन लोगों से घिरा हुआ था जिन्होंने मेरे बारे में सुना था, मैं उनके दर्शन के प्रति दीवानगी का शिकार था. दोनों में से कौन सी स्थिति अधिक दयनीय थी, यह मैं अक्सर तय नहीं कर पाता हूं. कम से कम इतना तो मैं जानता हूं कि दर्शनवालों के अंधे प्रेम ने मुझे अक्सर क्रोधित किया है, और अधिक बार दिल को दुखाया है. जबकि यात्रा, हालांकि अक्सर कष्टदायक होती है, उत्थानकारी रही है और इसने मुझे शायद ही कभी क्रोधित किया हो.”

आस्था के नाम पर ठगी

उस दौर में गांधी शारीरिक रूप से सक्षम थे. काफी चलते थे. चेहरा भी तब इतना जाना-पहचाना नहीं था कि भीड़ देखते ही घेर ले. लेकिन कुंभ क्षेत्र में अपने भ्रमण में गांधी ने तीर्थयात्रियों को धर्मपरायणता की अपेक्षा पाखंड की ओर अधिक उन्मुख देखा. साधुओं के ऐसे झुंड दिखे जिन्हें देख ऐसा लगा कि जीवन की अच्छी चीजों का आनंद लेने के लिए ही वे पैदा हुए हैं. लोगों को ठगने के लिए वहां पांच पैरों वाली एक गाय देखी! वे चकित थे लेकिन जल्दी ही भ्रम दूर हो गया. पता चला कि पांचवां पैर कुछ और नहीं बल्कि एक जीवित बछड़े का पैर था, जिसे गाय के कंधे पर लगाया गया था. यह दोहरी क्रूरता थी.

पहले गाय के साथ क्रूरता की गई और फिर अज्ञानी लोगों से पैसे ऐंठ लिए गए. गांधी तीर्थयात्रा की भावना से हरिद्वार नहीं गए थे. उन्होंने कभी नहीं सोचा कि वे धर्म की खोज में तीर्थस्थानों पर जायेंगे. लेकिन फिर सोचा कि वहां जो सत्रह लाख लोग बताए गए, वे सभी पाखंडी या केवल दर्शनार्थी तो नहीं हो सकते? इसमें कोई संदेह नहीं था कि उनमें से असंख्य लोग पुण्य कमाने और आत्मशुद्धि के लिए वहां पहुंचे थे. यह अलग है कि इस तरह की आस्था आत्मा को किस हद तक उन्नत करती है ?

अधर्म के प्रायश्चित के लिए आत्म-त्याग

मुख्य पर्व का दिन गांधी के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ. सारी रात गहन चिंतन में डूबे रहे. सोचते रहे कि चारों ओर फैले पाखंड के बीच भी पुण्यात्माएं हैं. उन्होंने लिखा, “वे अपने निर्माता के सामने दोषमुक्त होंगी. यदि हरिद्वार जाना अपने आप में पाप है, तो मुझे सार्वजनिक रूप से इसका विरोध करना चाहिए और कुंभ के दिन हरिद्वार छोड़ देना चाहिए. यदि हरिद्वार की तीर्थयात्रा और कुंभ मेले में जाना पाप नहीं है, तो मुझे वहां व्याप्त अधर्म के लिए प्रायश्चित करने के लिए कुछ आत्म-त्याग करना चाहिए और अपने आप को शुद्ध करना चाहिए. यह मेरे लिए बिल्कुल स्वाभाविक था.

मेरा जीवन अनुशासनात्मक संकल्पों पर आधारित रहा है. मैंने सोचा कि मैंने कलकत्ता और रंगून में अपने मेजबानों को जो अनावश्यक परेशानी दी थी, जिन्होंने मेरा इतना भव्य स्वागत किया था. इसलिए मैंने अपने दैनिक आहार की वस्तुओं को सीमित करने और सूर्यास्त से पहले अपना अंतिम भोजन करने का निर्णय लिया. मुझे विश्वास था कि, यदि मैंने अपने आप पर ये प्रतिबंध नहीं लगाए, तो मैं अपने भावी मेजबानों को बहुत असुविधा में डालूंगा और खुद सेवा करने के बजाय दूसरों को अपनी सेवा में लगाऊंगा. इसलिए मैंने प्रतिज्ञा की कि भारत में रहते हुए मैं चौबीस घंटे में पांच से ज़्यादा चीज़ें नहीं खाऊंगा और शाम ढलने के बाद कभी कुछ नहीं खाऊँगा. मैंने इस बात पर पूरा ध्यान दिया कि मुझे किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है? लेकिन मैं कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता था.

मैंने मन ही मन सोचा कि अगर मैं दवा को पांच चीज़ों में गिन लूं तो बीमारी के दौरान क्या होगा और खाने की कुछ खास चीज़ों के मामले में कोई अपवाद नहीं रखूंगा. मैंने आखिरकार तय किया कि किसी भी मामले में कोई अपवाद नहीं होना चाहिए.”

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