क्रांतिकारी लाला लाजपत राय पर पड़ी लाठियां कैसे बनीं ब्रिटिश राज के ताबूत की कील?

क्रांतिकारी लाला लाजपत राय पर पड़ी लाठियां कैसे बनीं ब्रिटिश राज के ताबूत की कील?

पंजाब केसरी के नाम से मशहूर लाजपत राय ने राष्ट्रवादी आंदोलन के विस्तार के लिए कई दिशाओं में काम किया.

लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति ने अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ संघर्ष को धार दी थी. लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर और विपिन चंद्र पाल उन नेताओं में थे, जिन्हें अंग्रेजों से किस्तों में रियायतें कुबूल नहीं थी. ब्रिटिश राज से मुक्ति और पूर्ण स्वराज से कुछ भी कम उन्हें स्वीकार नहीं था. तिलक को बंदी बनाकर माण्डले जेल भेज दिए जाने और विपिन चंद्र पाल के सार्वजनिक जीवन से संन्यास लिए जाने के बाद भी लाला लाजपत राय आंदोलन की उग्र राष्ट्रवादी धारा की अगुवाई करते रहे.

साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन करते समय निर्मम लाठीचार्ज में बुरी तरह घायल लाला लाजपत राय की इलाज के दौरान शहादत हो गई थी. क्रांतिकारियों ने इसे देश का अपमान माना था. प्रतिशोध में पुलिस अधिकारी सांडर्स का वध किया था. उनके जन्मदिन के मौके पर पढ़िए संघर्षपूर्ण जीवन कुछ प्रसंग.

लाल-बाल-पाल: पूर्ण स्वराज से कम नहीं स्वीकार

लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति कांग्रेस के आंदोलन की उस धारा की अगुवाई करती थी, जो अंग्रेजों के यथाशीघ्र भारत छोड़ने की पक्षधर थी. कांग्रेस की दूसरी धारा की सोच संवैधानिक सुधारों और धीरे-धीरे रियायतें हासिल करती थी. आजादी के संघर्ष का यह प्रारंभिक चरण था. असहमतियों के बीच 1907 से 1918 के मध्य कांग्रेस दो धड़ों में बंटी रही. अंग्रेजों से सीधे संघर्ष और पूर्ण स्वराज के हिमायती गरम दल और क्रमबद्ध सुधारों में भरोसा करने वाले कांग्रेसी नरम दल के तौर पर पहचाने गए.

गरम दल की सोच थी कि स्वराज प्राप्त करने के लिए स्वदेशी शिक्षा और स्वदेशी उत्पादन पर बल के साथ ही विदेशी वस्तुओं के पूर्ण बहिष्कार का रास्ता अख्तियार करना होगा. गुलामी की मानसिकता से छुटकारे और स्वदेश प्रेम की भावना विकसित करने के लिए स्वदेशी शिक्षा को वे बुनियादी जरूरत मानते थे. स्वदेशी उत्पादन और उनका प्रयोग आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए जरूरी था. दूसरी तरफ विदेशी वस्तुओं का प्रयोग बंद होने से ब्रिटिश राज पर सीधी आर्थिक चोट पहुंचेगी.

हर मोर्चे पर सक्रिय

पंजाब केसरी के नाम से मशहूर लाजपत राय ने राष्ट्रवादी आंदोलन के विस्तार के लिए कई दिशाओं में काम किया. वे आर्य समाज से जुड़े और उसके जरिए हिन्दू समाज की एकता के लिए उन्होंने छुआछूत के विरुद्ध अभियान चलाया. डी.ए.वी. कॉलेज के माध्यम से स्वदेशी और राष्ट्रवादी सोच की शिक्षा के विकास और प्रसार के उनके प्रयास इसी कड़ी में थे. विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन और प्रयोग का उनका देशव्यापी अभियान लोगों को जागरूक करने का अनूठा प्रयास था.

1897 और 1899 में जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा तो राहत कार्यों में वे अग्रिम मोर्चे पर डटे रहे. सेवा-सहयोग के लिए वे इतने समर्पित थे कि अनेक अकाल पीड़ितों को उन्होंने अपने घर पर ठहरा कर सहायता की. कांगड़ा में भूकंप से तबाही के समय भी राहत और बचाव कार्यों में वे सबसे आगे रहे. 1905 में बंगाल विभाजन विरोध के आंदोलन में उन्होंने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और विपिनचन्द्र पाल के कंधे से कंधा मिलाकर अपना सहयोग दिया. 3 मई 1907 को सरकार ने उन्हें रावलपिंडी में गिरफ्तार कर लिया. रिहा होने के बाद भी वे आजादी के लिए लगातार संघर्ष करते रहे.

1920 में कांग्रेस का नेतृत्व किया

1907 में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए उनके नाम का प्रस्ताव हुआ लेकिन तब उनका निर्वाचन संभव नहीं हुआ. 1908 में तिलक की गिरफ्तारी और विपिन चंद्र पाल के सार्वजनिक जीवन से संन्यास के बाद भी लाजपत राय आजादी के आंदोलन की उग्र सोच की अगुवाई करते रहे. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वे अमेरिका में रहे. वहां 1917 में इंडियन होम रूल लीग की स्थापना की.

लीग के जरिए भारतीयों की भलाई तथा आजादी के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए वे सक्रिय रहे. 1920 की शुरुआत में उनकी भारत वापसी हुई. इसी साल वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुन गए. असहयोग आंदोलन में हिस्सेदारी के चलते 1921 से 1923 तक वे जेल में रहे.

हर लाठी बनेगी ब्रिटिश राज के ताबूत की कील

वे पंजाब काउंसिल के लिए भी चुने गए. 1928 में उन्होंने काउंसिल में साइमन कमीशन के विरोध का प्रस्ताव रखा. 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन की अगुवाई के दौरान लाला लाजपत राय पर पुलिस सुपरिटेंडेंट जे.ए.स्कॉट ने लाठियों से निर्मम हमला करके बुरी तौर पर घायल कर दिया.

नाजुक हालत में भी राय ने अंग्रेजी हुकूमत को चेतावनी देते हुए कहा था, “मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश हुकूमत के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी.” इस प्रदर्शन में वैचारिक असहमति के बाद भी भगत सिंह शामिल हुए थे. सारे देश मे स्कॉट की इस करतूत पर गुस्सा था. युवा बदला लेने पर आमादा थे. बुरी तरह घायल लाला लाजपत राय का 17 नवम्बर 1928 को निधन हो गया.

एक अदना पुलिस अफसर की इतनी हिम्मत! लिया महीने भर में बदला

भगत सिंह और साथियों ने एक महीने के भीतर स्कॉट की हत्या करने की कसम खाई. 17 दिसम्बर का दिन तय हुआ. भगत सिंह, आजाद, राजगुरु और जयगोपाल को यह काम पूरा करना था. पार्टी के निर्देश पर भगत सिंह ने अपने बाल कटवाए और दाढ़ी से फुर्सत ली. तय दिन स्कॉट छुट्टी पर था. सूचना देने वाले जयगोपाल की चूक से असिस्टेन्ट सुपरिटेंडेंट जे.पी.साण्डर्स पर गोलियां बरसीं और उसने मौके पर ही दम तोड़ दिया.

अगली सुबह लाहौर में चुनौती देते पोस्टर लगे थे,” यह सोचना भी खौफनाक लगता है कि एक अदना पुलिस अफसर तीस करोड़ हिंदुस्तानियों के प्यारे नेता को इतने बेइज्जत तरीके से छूने की हिम्मत कर सकता है, जो उनकी मौत का कारण बन जाए. हमने लाला लाजपतराय की मौत का बदला ले लिया है.

एक दबे-कुचले और दमित देश की भावनाओं को चोट मत पहुंचाओ. ऐसी शैतानी करतूत से पहले समझ लो. कड़ी निगरानी के बाद भी रिवॉल्वर आते रहेंगे. सशस्त्र विद्रोह के लिए ये हथियार भले नाकाफ़ी हों लेकिन राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने के लिए काफी हैं. एक आदमी की मौत का अफसोस है. मगर वह आदमी उस हुकूमत का नुमाइंदा था, जो जालिम और नीच है और जिसको खत्म होना जरूरी है.”

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