400 साल पुराना ‘पत्थर मेला’… शिमला में एक-दूसरे पर बरसाते हैं लोग, खून निकलने तक मारते हैं; आखिर क्यों?

400 साल पुराना ‘पत्थर मेला’… शिमला में एक-दूसरे पर बरसाते हैं लोग, खून निकलने तक मारते हैं; आखिर क्यों?

शिमला से करीब 30 किलोमीटर दूर धामी के हलोग गांव में हर साल एक अनोखा मेला आयोजित होता है, जिसे पत्थर मेला कहा जाता है. यह मेला दीवाली के अगले दिन मनाया जाता है और इसमें लोग आपस में एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं. खेल तब तक चलता है जब तक किसी के शरीर से खून न निकल जाए. जैसे ही खून निकलता है, खेल बंद कर दिया जाता है और उस व्यक्ति को भाग्यशाली माना जाता है, क्योंकि उसका खून मां काली को चढ़ाया जाता है.

इस साल 60 साल के सुभाष को पत्थर लगा और उनके खून से मां काली को तिलक किया गया. सुभाष पुलिस विभाग से सेवानिवृत्त हैं और उन्होंने इसे सौभाग्य की बात बताया.

इस मेले की परंपरा करीब 400 साल पुरानी मानी जाती है. माना जाता है कि धामी रियासत की रानी ने नरबलि की प्रथा को खत्म करने के लिए अपना बलिदान दिया था और खुद सती हो गई थीं. सती होने से पहले उन्होंने कहा था कि अब नरबलि नहीं दी जाएगी और मां काली को तिलक केवल पत्थर खेल में खून बहाकर ही चढ़ाया जाएगा. तभी से यह परंपरा चली आ रही है.

पूजा करने के बाद निकलता है जुलूस

पत्थर मेला रानी के स्मारक रानी का चौरा पर होता है. इसमें केवल पुरुषों को भाग लेने की अनुमति होती है. महिलाएं और बच्चे दूर से इसे देखते हैं. मेले में राजपरिवार की दो टोलियां कटैड़ू, तुनड़ु, दगोई, जठोटी खुंद और जमोगी खुंद आपस में पत्थर फेंकती हैं. खेल शुरू होने से पहले ढोल-नगाड़ों के साथ नरसिंह मंदिर से जुलूस निकाला जाता है.

दूर-दूर से देखने आते हैं लोग

राजघराने के उत्तराधिकारी जगदीप सिंह राणा और मेला कमेटी के जनरल सेक्रेटरी रणजीत सिंह कंवर ने बताया कि इस परंपरा को श्रद्धा से निभाया जाता है. कोई भी डर या संशय मन में नहीं रखता. सब चाहते हैं कि उन्हें पत्थर लगे और उनकी टोली जीते. धामी का यह मेला न सिर्फ एक धार्मिक परंपरा है बल्कि यह आस्था, इतिहास और लोक संस्कृति का अद्भुत मेल भी है. विज्ञान और आधुनिकता के इस युग में भी यह प्रथा आज भी पूरी श्रद्धा से निभाई जाती है और इसे देखने हर साल दूर-दूर से लोग आते हैं.

रिपोर्ट – लियाकत अली / शिमला.

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