मुंबई के एक कार्यकर्ता अजय बोस द्वारा दायर किए गए एक सूचना का अधिकार (RTI) आवेदन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बचपन में चाय बेचने के दावे पर नई बहस को जन्म दिया है. 21 अगस्त 2024 को किए गए इस आवेदन में मोदी द्वारा कथित रूप से वडनगर में चाय की दुकान के बारे में जानकारी मांगी गई थी, जिसमें दुकान का नाम और संबंधित विक्रेता लाइसेंस जैसी जानकारी शामिल थी.
अहमदाबाद डिविजन का जवाब
19 सितंबर 2024 को पश्चिमी रेलवे के अहमदाबाद डिविजन ने जवाब दिया कि वे मांगी गई जानकारी प्रदान नहीं कर सकते हैं क्योंकि संबंधित रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं. उन्होंने स्पष्ट किया कि वडनगर सहित स्टेशनों पर खानपान स्टॉल से संबंधित रिकॉर्ड को 2003 में राजकोट डिविजन से अहमदाबाद डिविजन को स्थानांतरित किया गया था. लेकिन स्थानांतरण दस्तावेज़ में उल्लेखित विशिष्ट फाइलें, जिनमें वडनगर की स्टॉल से संबंधित एक फाइल शामिल थी, नहीं मिल सकी.
बोस के अनुरोध में चाय की दुकान का नाम, मोदी के विक्रेता लाइसेंस के बारे में जानकारी और उस रेलवे अधिकारी का नाम और पद मांगा गया था जिसने ऐसा लाइसेंस जारी किया था. पश्चिमी रेलवे के जवाब में यह बताया गया कि मांगी गई जानकारी बहुत पुराने रिकॉर्ड से संबंधित है, जो उनके कार्यालय में उपलब्ध नहीं है.
मुद्दे का महत्व
अहमदाबाद डिविजन के जवाब में कहा गया, “1 अप्रैल 2003 को अहमदाबाद डिविजन के गठन के बाद, राजकोट डिविजन ने अहमदाबाद डिविजन के अंतर्गत आने वाले स्टेशनों के खानपान स्टॉल की फाइलें हस्तांतरित की थीं. इस हस्तांतरण पत्र में, वडनगर की एक स्टॉल से संबंधित फाइल का उल्लेख किया गया था. लेकिन वर्तमान में, उपरोक्त पत्र में उल्लिखित कोई भी फाइल कार्यालय के रिकॉर्ड में नहीं है.”
इस RTI जवाब ने मोदी के ‘चायवाले’ के रूप में शुरुआती जीवन के चारों ओर की कथा पर चर्चा को जन्म दिया है, जो राजनीतिक विमर्श में अक्सर उजागर किया जाता है. आलोचकों का तर्क है कि आधिकारिक दस्तावेजों की अनुपस्थिति इन दावों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाती है.
यह मामला केवल मोदी के बचपन के दावों पर ही नहीं, बल्कि राजनीतिक नारेटिव और जनता के विश्वास पर भी एक बड़ा सवाल खड़ा करता है. क्या यह कहानी केवल एक राजनीतिक हथियार है, या वास्तव में मोदी की पहचान का एक हिस्सा? इस मुद्दे पर चर्चा जारी है और इसके संभावित प्रभावों पर सभी की नज़रें बनी हुई हैं.
यह RTI आवेदन और उसके परिणाम यह दिखाते हैं कि कैसे राजनीतिक आंकड़ों के बचपन से जुड़े दावे अक्सर विवादों का कारण बनते हैं और आम जनता की समझ और विश्वास को प्रभावित करते हैं.