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ट्रंप या हैरिस: अमेरिकी चुनाव में किसकी जीत भारत के लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद?

ट्रंप या हैरिस: अमेरिकी चुनाव में किसकी जीत भारत के लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद?
ट्रंप या हैरिस: अमेरिकी चुनाव में किसकी जीत भारत के लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद?

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव का अंतिम दौर चल रहा है. नाटकीय घटनाक्रमों से भरे इस चुनाव को कई विश्लेषक दुनिया पर दूरगामी असर डालने वाला मान रहे हैं.

एक तरफ़ हैं डोनाल्ड ट्रंप, जो एक बार चुनाव जीत चुके हैं और एक बार हार चुके हैं, और अब रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हैं.

दूसरी ओर, जब चुनावी रेस ज़ोर पकड़ रही थी, तो डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन उम्मीदवार थे.

लेकिन स्वास्थ्य को लेकर उठते सवालों के बीच उन्होंने अपनी दावेदारी से हटने का फ़ैसला किया.

अब डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से भारतीय मूल की कमला हैरिस चुनाव लड़ रही हैं.

ऐसे में बीबीसी हिन्दी के ख़ास साप्ताहिक कार्यक्रम ‘द लेंस’ में चर्चा हुई कि आख़िर चुनाव के मौजूदा हालात क्या हैं?

कौन सा उम्मीदवार भारत के नजरिए से बेहतर साबित हो सकता है? भारत में बैठे किसी व्यक्ति पर इन चुनावों का क्या प्रभाव पड़ेगा?

साथ ही, मध्य पूर्व में जारी संघर्ष का इन चुनाव नतीजों पर क्या असर हो सकता है और वहाँ रहने वाले भारतीयों के लिए इन चुनावों के क्या मायने हैं?

चर्चा के लिए कलेक्टिव न्यूज़रुम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा के साथ अमेरिका से जुड़ीं बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य और तरहब असग़र.

ब्रिटेन से वरिष्ठ पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर पैनी नज़र रखने वाले शिवकांत शामिल हुए.

इसके अलावा इस कार्यक्रम में भारत से जुड़े पूर्व राजनयिक स्कन्द तायल, जो कि अमेरिका-भारत संबंधों के विशेषज्ञ हैं.

अमेरिका की चुनाव प्रक्रिया: इलेक्टोरल कॉलेज और स्विंग स्टेट

वे कहती हैं, “कैलिफ़ोर्निया के पास सबसे ज़्यादा 54 इलेक्टोरल वोट हैं और अलास्का जिसके पास महज़ तीन इलेक्टोरल वोट है.”

इसलिए, कैलिफ़ोर्निया और अलास्का के वोटरों का प्रभाव चुनाव पर अलग-अलग होता है, और राज्यों के पॉलिटिकल ट्रेंड को ध्यान में रखते हुए चुनाव की रणनीतियां बनाई जाती हैं.

अमेरिकी चुनावों में ‘स्विंग स्टेट्स’ का बहुत महत्व है. ये वे राज्य हैं, जहां मतदाताओं की प्राथमिकता स्पष्ट नहीं होती और ये चुनाव के परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं.

दिव्या आर्य इसे समझाते हुएकहती हैं, “मान लीजिए कैलिफ़ोर्निया एक डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर झुकाव रखने वाला राज्य है. वहीं टेक्सास परंपरागत रूप से रिपब्लिकन राज्य माना जाता है. तो इन राज्यों की एक तरह से अहमियत पूरे चुनाव में थोड़ी कम हो जाती है.”

स्विंग स्टेट्स में दोनों पार्टियों की टीमें अपना अधिकतम ध्यान केंद्रित करती हैं, क्योंकि यहां के मतदाता तय कर सकते हैं कि चुनाव में किसका पलड़ा भारी होगा.

दिव्या बताती हैं, ”इस चुनाव में छह प्रमुख स्विंग स्टेट्स हैं- विस्कांसिन, नेवाडा, मिशिगन, नॉर्थ कैरोलाइना, एरिज़ोना और पेंसिल्वेनिया.”

वे कहती हैं, “इन राज्यों में उम्मीदवारों का पूरा ध्यान केंद्रित है, क्योंकि इन्हीं के परिणाम तय कर सकते हैं कि अगला राष्ट्रपति कौन बनेगा.”

अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में मुकाबला दो प्रमुख दलों, डेमोक्रेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों के बीच हो रहा है.

यहां के 50 राज्यों में कुल 538 इलेक्टोरल कॉलेज वोट हैं, और राष्ट्रपति बनने के लिए किसी भी उम्मीदवार को बहुमत (270 या उससे अधिक) का आंकड़ा पार करना होता है.

केवल दो को छोड़ कर सभी राज्यों में जो भी उम्मीदवार सबसे ज्यादा वोट हासिल करता है, उसे ही इलेक्टोरल कॉलेज के सभी वोट दे दिए जाते हैं.

पिछले चुनाव में, डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन ने 306 इलेक्टोरल वोट हासिल किए थे, जबकि रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप को 232 वोट मिले थे.

अमेरिका में हर राज्य के पास समान इलेक्टोरल वोट नहीं हैं, जिससे व्यक्तिगत वोट की अहमियत बदल जाती है.

इसे समझाते हुए अमेरिका में मौजूद बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य कहती हैं, ”यहां पर जो व्यक्तिगत वोट है, वो मांगा तो राष्ट्रपति के नाम पर जाता है, लेकिन उस हर व्यक्तिगत वोट की अहमियत एक जैसी नहीं है, क्योंकि पचासों राज्यों के पास एक जैसे वोट नहीं हैं.”

भारत समेत दुनियाभर की नज़र इस चुनाव पर क्यों है?

अमेरिका के चुनाव नतीजों का भारत समेत पूरी दुनिया पर असर पड़ता है. भारत के लिहाज़ से भी कई चीज़ें हमेशा इस बात पर टिकी होती हैं कि अमेरिका का भारत के लिए रुख़ कैसा है?

इस पर वरिष्ठ पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकार शिवकांत कहते हैं, “अमेरिका भले ही इस वक्त उतना शक्तिशाली ना रहा हो, लेकिन जितनी भी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं हैं, उनमें अमेरिका का दबदबा अभी भी बाकी है.”

वो कहते हैं, “भारत जो बड़े लंबे समय से ये प्रयास कर रहा है कि संयुक्त राष्ट्र में सुधार हो ताकि जो भारत जैसे बड़े देश हैं, उनकी बात सही तरह से सुनी जा सके, उनको सही प्रतिनिधित्व मिल सके. ये तभी संभव है जब अमेरिकी उसके लिए तैयार हो.”

वरिष्ठ पत्रकार शिवकांत का मानना है कि अगर अमेरिका तैयार भी हो जाए तो इसके बावजूद बड़ी कठिनाई आने वाली है.

उन्होंने कहा, “अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को चलाने के लिए भी सबसे बड़ा दानदाता अभी तक अमेरिका ही है. अमेरिका में जो भी फ़ैसला होता है, उसका भारत ही नहीं पूरे विश्व की राजनीति पर असर पड़ता है.”

वो कहते हैं, “चाहे वो व्यापार हो, चाहे वो राजनयिक मामले हों, चाहे वो पर्यावरण का मामला हो, चाहे वो जलवायु परिवर्तन हो या चाहे वो आतंकवाद हो.”

उन्होंने कहा, “जीवन के हर पहलू से जुड़े जो मुद्दे हैं उनको अमेरिका के लोग जो फ़ैसला करते हैं वो प्रभावित करते हैं. इसलिए अमेरिका में होने वाले चुनाव पर दुनिया के हर व्यक्ति की नज़र रहती है और भारत को भी उसकी चिंता होनी चाहिए.”

अमेरिकी चुनाव में किसकी जीत से भारत को ज़्यादा फ़ायदा?

भारत और अमेरिका के रिश्तों का इतिहास हाल के वर्षों में काफी सकारात्मक रहा है. चाहे डोनाल्ड ट्रंप का कार्यकाल हो या वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन का, भारत के साथ संबंध लगातार मजबूत बने रहे हैं.

पूर्व राजनयिक स्कन्द तायल का मानना है कि अमेरिका में चाहे कोई भी राष्ट्रपति हो, भारत और अमेरिका के रिश्ते स्थिर रहेंगे.

वो कहते हैं, ”अगर आप भारतीय प्रशासन की तरफ से देखें तो दो-तीन मुद्दे हैं जो भारत और अमेरिका के बीच में खास हैं. भारत में हम जैसे लोग जो सरकार के बाहर हैं, उनका ये मानना है कि अमेरिका की विदेश नीति इस समय रूस को बिल्कुल चीन की गोद में धकेल रही है और बहुत लोगों का मानना है कि शायद राष्ट्रपति ट्रंप इस पर दोबारा कोई विचार करेंगे.”

तायल के अनुसार, भारत मजबूत तरीके से रूस के पक्ष में है, जबकि मौजूदा अमेरिकी प्रशासन इस स्थिति को नहीं चाहता है. इसके अलावा, अमेरिका और भारत समेत दुनिया के सामने सबसे बड़ा चुनौती चीन से है.

इस मोर्चे पर, ट्रंप और बाइडन दोनों की नीतियां चीन को लेकर सख्त और यथार्थवादी रही हैं.

लोगों का मानना है कि अगर कमला हैरिस राष्ट्रपति बनती हैं, तो बाइडन की वर्तमान विदेश नीति जारी रह सकती है.

वरिष्ठ पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकार शिवकांत का कहना है कि भारत के लिए नीतिगत स्तर पर रिपब्लिकन प्रशासन बेहतर साबित होता आया है.

वो कहते हैं, ”जितने भी बड़े इतिहास बनाने वाले समझौते हुए हैं, वो रिपब्लिकन प्रशासन के दौरान हुए हैं, लेकिन इस बार के उम्मीदवारों की बात करें, तो डोनाल्ड ट्रंप का पीएम मोदी के साथ रिश्ता अपनी जगह है.”

शिवकांत कहते हैं, “हालांकि, ट्रंप की व्यापार नीति में संरक्षणवाद इतना हावी है कि इससे भारत के लिए अपनी अपेक्षाओं को पूरा करना मुश्किल हो सकता है.”

वो कहते हैं, ”भारत को अब अपना माल जितनी जल्दी हो सके, जितना ज़्यादा हो सके विदेशों में बेचना है उसी से भारत उन्नति कर सकता है. तो उसके रास्ते में ट्रंप का प्रशासन आता है तो बहुत बड़ा रोड़ा साबित हो सकता है.”

शिवकांत मानते हैं कि आप्रवासन नीति में भी ट्रंप की सख्ती भारत के हितों को चुनौती देती है. वे खुद को एक ऐसे नेता के रूप में पेश करते हैं जिनसे अन्य देश डरते हैं, लेकिन उनकी अनिश्चितता के कारण भरोसे का मुद्दा भी उठता है.

वो कहते हैं, ”अगर आप अप्रत्याशित हैं तो फिर आपके साथ किसी समझौते या किसी नीति पर भरोसा नहीं किया जा सकता है.”

उन्होंने कहा, ”दूसरी तरफ अगर आप कमला हैरिस की बात करें तो उनकी डेमोक्रेट्स की नीतियां मानवाधिकारों को लेकर, धार्मिक स्वतंत्रता, नैतिक मामलों को लेकर काफ़ी नुक्ताचीनी की रही हैं.”

वो कहते हैं, ”भारतीय सरकार के लिए और कई बार भारतीय कारोबारों के लिए दोनों में ही समस्याएं हैं, इन दोनों की चुनौतियां भी हैं और अच्छाइयां भी हैं.”

चीन के लिए किसका आना बेहतर होगा, इस पर तायल कहते हैं कि अमेरिका की नीति में चीन को लेकर अधिक बदलाव की संभावना नहीं है, चाहे कोई भी राष्ट्रपति बने.

हालांकि, ट्रंप अप्रत्याशित फ़ैसलों के लिए जाने जाते हैं और अगर वे चीन से कोई डील कर लेते हैं, तो अन्य देशों के हितों को भी त्याग सकते हैं.

वे कहते हैं, ”चीन के लिए ट्रंप की संभावित वापसी चिंता का विषय है.”

मध्य पूर्व संकट कितना बड़ा मुद्दा?

मध्य पूर्व संकट, खासकर इसराइल-गज़ा संघर्ष की चर्चा इस समय अमेरिकी चुनावों में भी हो रही है.

अमेरिकी मतदाता और राजनीतिक दल इस पर पैनी नज़र रखे हुए हैं, क्योंकि इससे विदेश नीति और देश के अंदरूनी सामाजिक ताने-बाने पर असर पड़ रहा है.

अमेरिका में मौजूद बीबीसी संवाददाता तरहब असग़र बताती हैं, “ये सिर्फ मुद्दा उन लोगों के लिए नहीं है, जो अमेरिका में एक प्रवासी की तरह आए और अब नागरिक बनकर मतदान का अधिकार रखते हैं.”

वो कहती हैं, ”ज़्यादातर अमेरिकी इसको बहुत बड़ी चिंता समझते हैं, क्योंकि जो मध्य पूर्व में युद्ध है उसका सीधा असर उनकी अपनी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है.”

तरहब कहती हैं कि मध्य पूर्व और ईरान की वर्तमान स्थिति अमेरिकी नीति के लिए एक महत्वपूर्ण विषय बनी हुई है.

कई पाकिस्तानी मानते हैं कि इससे अमेरिका की इस क्षेत्र में रुचि बढ़ सकती है. अगर कमला हैरिस व्हाइट हाउस में आती हैं, तो उनसे मौजूदा नीतियों को जारी रखने की उम्मीद की जा रही है.

दूसरी ओर, अगर डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में लौटते हैं, तो कुछ अप्रत्याशित फैसले भी देखने को मिल सकते हैं.

हालांकि, ट्रंप बार-बार ये वादा करते रहे हैं कि वो अंतरराष्ट्रीय मुद्दों, विशेषकर इस युद्ध का जल्द समाधान लाने पर जोर देंगे.

भारतीय मूल के लोग दोनों उम्मीदवारों को कैसे देख रहे हैं?

अमेरिका में आगामी चुनावों में आप्रवासन और वीज़ा नीति एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है.

बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य ने कई अमेरिकियों से बातचीत के बाद पाया कि कमला हैरिस का भारतीय मूल का होना भारतीय मतदाताओं के लिए एक खास संबंध बना रहा है.

दिव्या बताती हैं, “ज़मीनी स्तर पर कई छोटी-छोटी पार्टियां और संगठन डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ जुड़कर चुनाव प्रचार कर रहे हैं.”

वे कहती हैं, “लेकिन, साथ ही पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का प्रधानमंत्री मोदी के साथ रिश्ता भी मायने रखता है. ‘हाउडी मोदी’ जैसे समारोह, जो ट्रंप के कार्यकाल के दौरान टेक्सास में हुआ था, उसकी छाप आज भी लोगों के मन में गहरी है. ऐसे में, दोनों उम्मीदवारों की शख्सियत इस चुनाव में मुद्दों जितना ही महत्व रख रही है.”

दिव्या बताती हैं कि भारतीय मूल के दो प्रमुख वर्ग हैं- एक जो अस्थायी एच-1बी वीज़ा पर हैं और दूसरे जो अमेरिकी नागरिकता हासिल कर चुके हैं.

नागरिकता प्राप्त लोग ही मतदान कर सकते हैं, लेकिन यहां अस्थायी वीज़ा धारकों की एक बड़ी संख्या है, जो 20-30 वर्षों से ग्रीन कार्ड का इंतजार कर रहे हैं और अमेरिका में रह रहे हैं.

वे कहती हैं, “ये लोग विवेकपूर्ण तरीके से चुनाव प्रक्रिया के साथ जुड़े हुए हैं, लेकिन उनके पास मतदान का अधिकार नहीं है. फिर भी, चाहे वे मतदाता हों या न हों, उनके लिए आप्रवासन और कानूनी अप्रवास एक अहम मुद्दा है.”

इस पर ट्रंप की नीति भी एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरी है. ट्रंप ने बाइडन प्रशासन की अवैध आप्रवासन न रोक पाने के लिए आलोचना की है.

अमेरिका आने वाले भारतीयों में बड़ी संख्या पढ़े-लिखे लोगों की है. फिर भी हाल के वर्षों में गैरकानूनी आप्रवासन में भी बढ़ोतरी देखी गई है, क्योंकि कानूनी मार्ग काफी कठिन है.

बीबीसी संवाददाता तरहब असग़र इस संदर्भ में कहती हैं, “आप्रवासन एक बड़ी चिंता है, खासकर पाकिस्तान, भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देशों के लोगों के लिए. वे ध्यान दे रहे हैं कि अगर डोनाल्ड ट्रंप आते हैं तो अप्रवासन प्रक्रिया में काफी बाधा आ सकती है.”

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