Who are Dandi Sanyasis: हिंदू धर्म में दंडी संन्यासियों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है. भारत की संत परंपरा में दंडी संन्यासियों को वेदांत के गुढ़ रहस्यों का ज्ञाता माना जाता है. इन संन्यासियों की जीवन शैली अद्वितीय होती है. ये संन्यासी भगवान को नहीं छूते. यही नहीं मृत्यु के बाद इनका अंतिम संस्कार भी नहीं होता. दंडी संन्यासियों का जुड़ाव अद्वैत परंपरा से होता है.
किसको है दंडी संन्यासी बनने का अधिकार
शंकराचार्य द्वारा दशनामी परंपरा की स्थापना की गई है. दंंडी संन्यासी दशनामी परंपरा के अंग माने जाते हैं. ‘दंडी’ शब्द दंड से निकला है. इसका मतलब लकड़ी के एक पवित्र दंडे से है. दंडे को संयम, साधना और त्याग का प्रतीक माना जाता है. दंडी संन्यासी बनने के लिए कठोर साधना और तप की आवश्यकता होती है. जो व्यक्ति संसार की मोह माया से मुक्त होकर सिर्फ ब्रह्म की साधना में लीन रहना चाहता है. उसी के पास दंडी संन्यासी बनने के लिए संकल्प लेने का अधिकार है.
दंडी संन्यासी करने के लिए करने पड़ते हैं ये त्याग
दंडी संन्यासी बनने के लिए गुरू की इजाजत लेनी पड़ती है. फिर रिश्तों नातों की मोह माया और संपत्ति आदि को त्यागना पड़ता है. दंडी संन्यासी सदा सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हैं. दंडी संन्यासी हमेशा सात्विक भोजन खाते हैंं. दंडी संन्यासी ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं. दिक्षा प्रदान करने बाद दंडी संन्यासियों को पवित्र दंड प्रदान किया जाता है. ये दंड संन्यासियों के पास जिंदगी भर होता है.
भगवान को नहीं छूते
दंडी संन्यासी ने अपना पूरा जीवन ब्रह्म साधना को समर्पित कर दिया होता है. दंडी संन्यासी जो साधना करते हैं वो बहुत ही पवित्र होती है. यही कारण है कि दंडी संन्यासियों को भगवान की प्रतिमा छूने की जरूरत नहीं होती.
क्यों नहीं किया जाता अंतिम संस्कार
मृत्यु के बाद दंडी संन्यासियों का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता. अंतिम संस्कार के बजाय दंडी संन्यासियों के शव को किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर देने की परंपरा है. दंडी संन्यासियों के शव को अग्नि नहीं दी जाती. मान्यता है कि दंडी संन्यासियों के शव को जल में इसलिए प्रवाहित किया जाता है, ताकि उनका साधना चक्र पूरा हो सके.
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Disclaimer: इस खबर में दी गई जानकारी धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है. टीवी9 भारतवर्ष इसकी पुष्टि नहीं करता है.