Himachali Khabar (supreme court) कर्मचारियों पर जब मुकदमें चलते हैं तो कई बार उनको सरकारी कर्मचारी होने का फायदा मिलता दिखता है। डिपार्टमेंट धीमी चाल से चांज करता है, जिससे आरोप लगाने वाले को भी संतुष्टी नहीं होती। कई बार देखने को मिलता है कि फाइलें धूल फांकती रहती है, लेकिन यह ज्यादा नहीं चलने वाला। सुप्रीम कोर्ट (supreme court) का ऐसे मामलों के संदर्भ में बड़ा फैसला आया है।
समय अवधि से जुड़ी है सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सरकारी कर्मियों पर रिश्वत सहित अन्य आपराधिक केसेज में मुकदमा चलाने की अनुमति से जुड़ी समय अवधि को लेकर सुप्रीम कोर्ट (supreme court decision) ने आवश्यक बात कही है। शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी भ्रष्टचारी पर मुकदमा दर्ज होने में देर होती है तो इससे ऐसी संस्कृति पनपनती है कि शिकायत कर्ता को लगता है कि भ्रष्टाचारी पर कार्रवाई नहीं हो रही है।
चार महीने के सांविधिक प्रावधान को अनिवार्य बताया
रिश्वत सहित अन्य केसेज में सरकारी अधिकारियों पर केस चलाने की अनुमति देने के लिए 4 माह के सांविधिक प्रावधान को मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट (supreme court) ने अनिवार्य करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भ्रष्ट व्यक्ति को अभियोजित करने में देर होने पर ऐसी संस्कृति पनपती है कि लगने लगता है कि उक्त आरेापी को दंडित नहीं किया जा रा है।
देरी के लिए सक्षम प्राधिकार जिम्मेदार
इसी प्रकार के मामलों में मुकदमें में देरी संबंधि वाक्य होने पर शीर्ष अदालत ने एक अहम फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट (supreme court) ने कहा कि इस विलंब के लिए सक्षम प्राधिकार जिम्मेदार होगा। सुप्रीम कोर्ट ने ऑर्डर दिया कि सक्षम प्राधिकार पर केंद्रीय सतर्कता आयोग की ओर से सीवीसी अधिनियम के तहत प्रशासनिक कार्रवाई की जाए।
कानून का शासन लग रहा दांव पर
सुप्रीम कोर्ट (supreme court order) में जस्टिस बीआर गवई और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्ह की पीठ ने मामले की सुनवाई की। इस दौरान 30 पृष्ठों के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुकदमा चलाने की अनुमति देने में देरी को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि यह सरकारी अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक मामलों को रद्द करने का आधार नहीं बनेगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुमति देने वाला प्राधिकार को ध्यान में रखना चाहिए कि लोग कानून के शासन में विश्वास करते हैं। यह देरी होने पर कानून का शासन न्याय प्रशासन में दांव पर लगा हुआ है।
आरोपों के निर्धारण की प्रक्रिया होती है बाधित
सुप्रीम कोर्ट (supreme court) की बैंच ने कहा कि आज्ञा के अनुरोध पर विचार करने में देरी करके आज्ञा देने वाला प्राधिकार न्याय की जांच को अनुपयोगी बना देता है। ऐसा करने से भ्रष्ट अधिकारी के विरूद्ध आरोपों को निर्धारित करने की प्रक्रिया कई हद तक बाधित होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी देरी समाजिक जीवन में भ्रष्टाचार की मौजूदगी के प्रति एक प्रणालीगत आत्मसमर्पण जैसी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों से भविष्य की पीढ़ी भ्रष्टाचार को जीवन का हिस्सा मानकर ऐसे जीने की आदी हो जाती है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में की टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट (supreme court case) ने विजय राजामोहन नाम के एक सरकारी अधिकारी की मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई की। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 और भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम की धारा 97 के बारे में विस्तार से बताया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इनके अनुसार लोक सेवकों को आपराधिक मामलों में आरोपी पक्ष बनाने के लिए सीबीआई अन्य जांच एजेंसियों के पास तीन महीने का समय है। इसमें कानूनी सलाह के लिए एक महीने का विस्तार किया गया है।