अफगानिस्तान के अब्दाली को भारतीय मराठाें से किस बात का खतरा था? हिन्दुस्तान में लड़ी जीवन की सबसे बड़ी जंग

अफगानिस्तान के अब्दाली को भारतीय मराठाें से किस बात का खतरा था? हिन्दुस्तान में लड़ी जीवन की सबसे बड़ी जंग

अफगानिस्तान में अहमद शाह अब्दाली को ‘बाबा-ए-कौम’ या ‘फादर ऑफ द नेशन’ माना जाता है.

पानीपत के मैदान में 14 जनवरी 1761 को तीसरी लड़ाई मराठों और अफगान सेना के बीच हुई थी. इसमें अफगान सेना का नेतृत्व वहां के शासक अहमद शाह अब्दाली दुर्रानी ने किया था. इस युद्ध का असर हिन्दुस्तान और अफगानिस्तान के अलावा कई और देशों पर पड़ा था. इसके कारण अफगानिस्तान में अहमद शाह अब्दाली को ‘बाबा-ए-कौम’ या ‘फादर ऑफ द नेशन’ माना जाता है. बंटवारे के बाद भारत से अलग हुए पाकिस्तान में भी उसे हीरो माना जाता है. आइए जान लेते हैं कि ऐसा क्यों है और भारत में जंग से उसने क्या हासिल किया था?

25 साल की उम्र में बना शासक

यह साल 1747 की बात है. 25 साल के कबायली सरदार अहमद खान अब्दाली को अफगानिस्तान का शासक चुना गया था. उसे अफगान क़बीलों की पारंपरिक पंचायत (जिरगा) ने शाह यानी राजा चुना था. तब इसकी बैठक पश्तूनों के गढ़ माने जाने वाले कंधार में हुई थी. अब कंधार दक्षिणी अफगानिस्तान का हिस्सा है. अब्दाली को उसकी विनम्रता और करिश्मे के लिए चलते काफी लोकप्रियता हासिल थी. साबिर शाह नामक एक सूफी दरवेश ने तो ताजपोशी के समय अब्दाली को दुर-ए-दुर्रान यानी मोतियों का मोती की उपाधि दी थी.

विशाल साम्राज्य स्थापित किया

यह उपाधि मिलने के बाद से ही अहमद शाह अब्दाली और उसके कबीले को दुर्रानी नाम से जाना जाने लगा. पश्तूनों और अफगानिस्तान के लोगों के लिए अब्दाली बेहद अहम कबीला माना जाता है. इसी सम्मानित कबीले के अहमद शाह ने शासन काल में उम्मीद से ज्यादा कामयाबी हासिल की थी. उसने तमाम अफगान कबीलों के बीच चलने वाली आपसी लड़ाई को खत्म कराया और सबको एकजुट किया. इस तरह से उसने एक एकीकृत अफगान देश यानी अफगानिस्तान की बुनियाद रखी थी. अहमद शाह ने अपने समय में तमाम लड़ाइयां जीतकर एक विशाल क्षेत्र पर अपना शासन कायम किया था. इतिहासकार इस पूरे क्षेत्र को दुर्रानी साम्राज्य कहते हैं.

इतिहासकार बताते हैं कि अहमद शाह अब्दाली का विशाल साम्राज्य पश्चिम में ईरान से लेकर पूरब में हिन्दुस्तान के सरहिंद तक फैला था. उसके साम्राज्य में उत्तर में मध्य एशिया के अमू दरिया के किनारे से दक्षिण में हिंद महासागर के किनारे तक का हिस्सा समाहित था. बताया जाता है कि अब्दाली की सल्तनत लगभग 20 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली थी. अब्दाली ने जिस अफगानिस्तान की नींव रखी, आज भले ही उसकी पुरानी चमक मिट चुकी है, उसकी सरहदें उतनी दूर तक नहीं फैली हैं पर उस देश का अस्तित्व आज भी है.

मराठों को रोकने के लिए लड़ी जंग

जनवरी 1761 में पानीपत में लड़ा गया युद्ध, अहमद शाह अब्दाली के जीवन का सबसे बड़ा युद्ध था. इस जंग के जरिए उसने मराठों को आगे बढ़ने से रोका और अपने साम्राज्य की रक्षा की थी. दरअसल, उस दौर था अब्दाली के साथ ही मराठा भी अपनी बादशाहत बढ़ाने में जुटे थे. दोनों ही पक्ष अधिक से अधिक इलाकों को अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाना चाहते थे. मराठा भी लगातार जंग जीतकर महत्वाकांक्षी होते जा रहे थे. इससे अब्दाली को अपनी सल्तनत पर खतरा महसूस होने लगा था.

अब्दाली को लगने लगा था कि मराठों की बढ़ती शक्ति उसके हिंदुस्तानी सूबों के साथ ही साथ अफगानिस्तान के प्रांतों के लिए भी खतरा बन सकती है. उत्तरी भारत के वे सूबे जो उस समय अब्दाली के साम्राज्य में थे, वे सामरिक तौर पर अब्दाली के लिए बेहद अहम थे. इसीलिए अफगानिस्तान के लोग मानते हैं कि अहमद शाह अब्दाली ने पानीपत की तीसरी लड़ाई आत्मरक्षा के लिए लड़ी थी.

साम्राज्य पर छाए खतरे को रोका

बताया जाता है कि अब्दाली का मकसद इस जंग के जरिए अपने साम्राज्य के लिए खतरा बन रहे मराठों को खदेड़ना था, जिससे वह सल्तनत के साथ ही साथ अपने क्षेत्रीय लोगों की भी हिफाजत कर सके. इस जंग में अब्दाली की सेना की निर्णायक जीत हुई और मराठों की हार पर दोनों ही ओर से हजारों लोग मारे गए थे. एक अनुमान के मुताबिक इस लड़ाई में 70 से 80 हजार लोग मारे गए थे.

बीबीसी की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अफगानिस्तान के कई इलाकों में आज भी इस जंग को ‘मराटाई वहाल’ (यानी मराठों को शिकस्त देना) के रूप में याद किया जाता है. कंधार में आज भी ये पश्तो में एक कहावत मशहूर है, तुम तो ऐसा दावा कर रहे हो, जैसे मराठों को शिकस्त दे दी है. वहीं, पाकिस्तान ने अब्दाली को सम्मान देने के लिए अपनी एक बैलिस्टिक मिसाइल का नाम ही उसके नाम पर रख दिया है.

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